कालसर्प दोष को कुछ पुराने ज्योतिषी नहीं मानते मगर पिछले 27 वर्षो में बहुत सी कुंडलिओं का गहन अध्ययन करने के उपरांत मैने अनुभव किया है की राहु और केतु के बीच बाकि सारे ग्रह हों तो जातक का प्रत्येक कार्य अड़चन से होता है।राहु -केतु के इर्द- गिर्द सभी गृह हों तो कालसर्प दोष लगता है। महर्षि पराशर एवं वाराहमिहिर ने भी कालसर्प योग को माना है।
राहु और केतु छायाग्रह हैं। राहु का जन्म नक्षत्र भरणी है जिस का देवता काल है और केतु का नक्षत्र अश्लेषा है और देवता सर्प है ,जब सब बाकी गृह राहु -केतु के मध्ये आते है तो कालसर्प योग बनता है। यह दोष पिछले जन्मों या पुरखों द्वारा किए दोषों के कारण बनता है।जिस के फलसवरूप दुर्भाग्य का जन्म होता है जो चार प्रकार के माने जाते हैं.पहला संतान अवरोध होता है, दूसरा कलहप्रिय पति या पत्नी का मिलना ,तीसरा धन के लिए तरसना और चौथा शारीरक यां मानसिक दुर्बलता होना। कालसर्प मुख्यतः हर भाव में अलग फल देता है. राहु बैठा होने वाले भाव से कालसर्प योग माना जाता है। राहु की मिथुन, कन्या, तुला, मकर और मीन मित्र राशियाँ है कर्क और सिंह शत्रु राशियाँ हैं। राहु का प्रभाव कलयुग में बहुत होता है अगर राहु अच्छा फल दे तो व्यक्ति को राजनीति में अपार सफलता मिलती है, उच्च पदवी पाता है और अगर नीच का हो तो हर कार्य में बाधा आती है। बारह घरों में यह योग होने से जातक को हर भाव में राहु बैठा होने वाले घर के कारण अलग अलग फल मिलते हैं।
कुंडली में राहु पहले घर में होने और केतु सातवे घर में होने से अनंत नामक कालसर्पदोष बनता है, दूसरे और आठवे में राहु -केतु होने से कुलिक, तीसरे और नवें घर में वासुकि नामक, चौथे और दसवें घर में शंखपाल, पांचवे और एकादश घर में पदम् , छटे घर से बारहवें में महा: पदम्, सप्तम से लेकर लग्न तक तक्षक, अष्टम स्थान से दूसरे स्थान तक कर्कोटक , नवें घर से तीसरे घर में शंकचूड़, दशम स्थान से चौथे स्थान तक होने से घातक,एकादश से पंचम स्थान पर राहु-केतु होने से विषधर,द्वादश से छटे स्थान में राहु-केतु होने से शेषनाग नामक कालसर्प योग बनता है।
कालसर्प दोष का निवारण करने में कई प्रकार के शांति विधान होते हैं. बगैर कुंडली का गहन अध्ययन किए कोई भी उपाय फलदयाक नहीं होता। किसी अनुभवी ज्योतिषी से इस दोष का निवारण करवाना चाहिए।
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